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Description:
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आज पहली तारीख की संध्या है। ब्रजनाथ दरवाज़े पर बैठे गोरेलाल का इंतज़ार कर रहे हैं।
पाँच बज गये गोरेलाल अभी तक नहीं आये। ब्रजनाथ की आँखें रास्ते की तरफ लगी हुई थीं। हाथ में एक पत्र था; लेकिन पढ़ने में जी नहीं लगता था। हर तीसरे मिनट रास्ते की ओर देखने लगते थे। लेकिन सोचते थे-आज वेतन मिलने का दिन है। इसी कारण आने में देर हो रही है। आते ही होंगे। छः बजे गोरेलाल का पता नहीं। कचहरी के कर्मचारी एक-एक करके चले आ रहे थे। ब्रजनाथ को कई बार धोखा हुआ। वह आ रहे हैं। ज़रूर वही हैं। वैसी ही अचकन है। वैसी ही टोपी है। चाल भी वही है। हाँ, वही हैं, इसी तरफ आ रहे हैं। अपने हृदय से एक बोझा-सा उतरता मालूम हुआ; लेकिन निकट आने पर ज्ञात हुआ कि कोई और है। आशा की कल्पित मूर्ति दुराशा में बदल गयी।
ब्रजनाथ का चित्त खिन्न होने लगा। वह एक बार कुरसी से उठे। बरामदे की चौखट पर खड़े हो, सड़क पर दोनों तरफ निगाह दौड़ायी। कहीं पता नहीं। दो-तीन बार दूर से आते हुए इक्कों को देख कर गोरेलाल को भ्रम हुआ। आकांक्षा की प्रबलता !
सात बजे; चिराग जल गये। सड़क पर अँधेरा छाने लगा। ब्रजनाथ सड़क पर उद्विग्न भाव से टहलने लगे। इरादा हुआ, गोरेलाल के घर चलूँ। उधर क़दम बढ़ाया; लेकिन हृदय काँप रहा था कि कहीं वह रास्ते में आते हुए न मिल जायँ, तो समझें कि थोड़े-से रुपयों के लिए इतने व्याकुल हो गये। थोड़ी ही दूर गये कि किसी को आते देखा। भ्रम हुआ, गोरेलाल हैं, मुड़े और सीधे बरामदे में आ कर दम लिया, लेकिन फिर वही धोखा। फिर वही भ्रांति। तब सोचने लगे कि इतनी देर क्यों हो रही है ? क्या अभी तक वह कचहरी से न आये होंगे ! ऐसा कदापि नहीं हो सकता। उनके दफ़्तरवाले मुद्दत हुई, निकल गये। बस दो बातें हो सकती हैं, या तो उन्होंने कल आने का निश्चय कर लिया, समझे होंगे, रात को कौन जाय, या जान-बूझ कर बैठे होंगे, देना न चाहते होंगे, उस समय उनको गरज थी, इस समय मुझे गरज है। मैं ही किसी को क्यों न भेज दूँ ? लेकिन किसे भेजूँ ? मुन्नू जा सकता है। सड़क ही पर मकान है। यह सोच कर कमरे में गये, लैंप जलाया और पत्र लिखने बैठे, मगर आँखें द्वार ही की ओर लगी हुई थीं। अकस्मात् किसी के पैरों की आहट सुनाई दी। परन्तु पत्र को एक किताब के नीचे दबा लिया और बरामदे में चले आये। देखा, पड़ोस का एक कुँजड़ा तार पढ़ाने आया है। उससे बोले-भाई, इस समय फुरसत नहीं है; थोड़ी देर में आना। उसने कहा-बाबू जी, घर भर के आदमी घबराये हैं, जरा एक निगाह देख लीजिए। निदान ब्रजनाथ ने झुँझला कर उसके हाथ से तार ले लिया, और सरसरी नजर से देख कर बोले-कलकत्ते से आया है। माल नहीं पहुँचा। कुँजड़े ने डरते-डरते कहा-बाबूजी इतना और देख लीजिए, किसने भेजा है। इस पर ब्रजनाथ ने तार फेंक दिया और बोले-मुझे इस वक्त फुरसत नहीं है।
आठ बज गये। ब्रजनाथ को निराशा होने लगी-मुन्नू इतनी रात बीते नहीं जा सकता। मन में निश्चय किया, आज ही जाना चाहिए, बला से बुरा मानेंगे। इसकी कहाँ तक चिंता करूँ। स्पष्ट कह दूँगा मेरे रुपये दो दो। भलमनसी भलेमानसों से निभाई जा सकती है। ऐसे धूर्तों के साथ भलमनसी का व्यवहार करना मूर्खता है। अचकन पहनी; घर में जा कर भामा से कहा-जरा एक काम से बाहर जाता हूँ, किवाड़ें बंद कर लो।
चलने को तो चले; लेकिन पग-पग पर रुकते जाते थे। गोरेलाल का घर दूर से दिखायी दिया; लैंप जल रहा था। ठिठक गये और सोचने लगे चल कर क्या कहूँगा ? कहीं उन्होंने जाते-जाते रुपये निकाल कर दे दिये, और देर के लिए क्षमा माँगी तो मुझे बड़ी झेंप होगी। वह मुझे क्षुद्र, ओछा, धैर्यहीन समझेंगे। नहीं, रुपयों की बातचीत करूँ ही क्यों ? कहूँगा-भाई घर में बड़ी देर से पेट दर्द कर रहा है। तुम्हारे पास पुराना तेज सिरका तो नहीं है ! मगर नहीं, यह बहाना कुछ भद्दा-सा प्रतीत होता है। साफ़ कलई खुल जायेगी। ऊँह ! इस झंझट की ज़रूरत ही क्या है। वह मुझे देख कर आप ही समझ जायेंगे। इस विषय में बातचीत की कुछ नौबत ही न आवेगी। ब्रजनाथ इसी उधेड़बुन में आगे बढ़ते चले जाते थे, जैसे नदी में लहरें चाहे किसी ओर चलें, धारा अपना मार्ग नहीं छोड़ती। |